सुभाष चंद्र बोस के जन्मदिन पर विशेष: अंग्रेज वायसराय वावेल हमेशा आज़ाद हिंद फौज को “एक डरपोक और कमजोर व्यक्तियों के समूह” बताता था।
स्वतंत्रता संग्राम के अग्रणी नेता सुभाष का जन्म 23 जनवरी, 1897 को ओडिशा के कटक में जानकीनाथ बोस और प्रभावती देवी के यहां हुआ था। उन्होंने 'तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा' का नारा दिया, जो भारतीय युवाओं में एक नया जोश भर गया। सुभाष के पिता प्रतिष्ठित सरकारी वकील थे। वह बंगाल विधानसभा के सदस्य भी रह चुके हैं और ब्रिटिश सरकार ने उन्हें 'रायबहादुर' के किताब से भी नवाजा था।
जानकीनाथ अपने बेटे को भी ऊंचे ओहदे पर देखना चाहते थे। सुभाष ने कटक के प्रोटेस्टेंट यूरोपियन स्कूल से प्राथमिक शिक्षा ग्रहण की। 1916 में जब सुभाष प्रेसीडेंसी कॉलेज से दर्शनशास्त्र में बीए कर रहे थे, तभी किसी बात पर छात्रों और अध्यापकों के बीच झगड़ा हो गया, सुभाष ने छात्रों का साथ दिया, जिस कारण उन्हें कॉलेज से एक साल के लिए निकाल दिया गया और परीक्षा देने पर भी प्रतिबंध लगा दिया। 49वीं बंगाल रेजीमेंट में भर्ती होने के लिए उन्होंने परीक्षा दी, लेकिन आंखों की दृष्टि कमजोर होने को चलते वह अयोग्य करार दे दिए गए।
दूसरे विश्व युद्व के दौरान अंग्रेज थलसेना की 14 वीं टुकड़ी ने वर्ष 1943 में बर्मा को जापानी सेना से दोबारा जीत लिया। इस जीत के साथ सेना के साथ गए युद्ध संवाददाताओं के भेजे गए लड़ाई के समाचारों के कारण भारत में अधिकांश जनता आजाद हिंद फौज के कारनामों से परिचित हुई। इस वजह से पहली बार अंग्रेजों के आजाद हिंद फौज की गतिविधियों पर लगाया हुए सेंसरशिप का पर्दाफाश हुआ।
कमजोर व्यक्तियों को समूह बताते थे वायसराय वावेल
अब अंग्रेजों के लिए आज़ाद हिंद फौज के गठन से लेकर उसकी सफलताओं को छिपाना संभव नहीं था। सो, ब्रिटिश खुफिया तंत्र ने आज़ाद हिंद फौज की छवि को धूमिल करने की ठानी। अंग्रेज वायसराय वावेल हमेशा आज़ाद हिंद फौज को “एक डरपोक और कमजोर व्यक्तियों के समूह” बताता था। अंग्रेजों के खुफिया तंत्र ने आज़ाद हिंद फौज के प्रतिबद्व सैनिकों की “कथित युद्ध क्रूरता” को बढ़ा-चढ़ाकर प्रचारित करने के साथ जापानी-भारतीय सेना को पांचवें स्तंभ का नाम दिया था।
वावेल व मार्शल ऑचिनलेक दोनों निराश व्यक्ति थे
वावेल और तत्कालिक भारतीय सेना का अंग्रेज़ प्रमुख फील्ड मार्शल ऑचिनलेक दोनों ही निराश व्यक्ति थे। ये दोनों पेशेवर सैनिक अफसर ब्रिटिश प्रधानमंत्री चर्चिल के सनक भरे आदेश के कारण युद्धक्षेत्र से हटा दिए गए थे। वावेल के साथ तो और भी बुरा हुआ था। चर्चिल ने उसे पदोन्नत करके वायसराय बना दिया था जबकि उससे पहले असैनिक ही वायसराय बने थे। ऑचिनलेक का मानना था कि एक सैनिक को अपनी शपथ के प्रति वफादार रहना चाहिए, भले ही उसने किसी दूसरे देश के राजा के प्रति निष्ठा की शपथ ली हो। इस तरह, सैनिक के किसी भी प्रकार का कोई विकल्प नहीं था। ऑचिनलेक की इस सोच से कारण मुकदमों का होना स्वाभाविक था।
नई दिल्ली (आईएएनएस)। नेताजी सुभाष चंद्र बोस के पिता बेटे को आईसीएस (भारतीय सिविल सेवा) का अफसर बनाना चाहते थे। इसकी तैयारी के लिए सुभाष लंदन चले गए। 1920 में सुभाष ने आईसीएस की परीक्षा में चौथा स्थान प्राप्त किया, लेकिन अंग्रेजों की गुलामी करना उन्हें मंजूर नहीं था और उन्होंने आजाद हिंद फौज का गठन कर अंग्रेजों से लोहा लेने की ठान ली।
सुभाष स्वामी विवेकानंद और महर्षि अरविंद घोष से प्रभावित थे
स्वामी विवेकानंद और महर्षि अरविंद घोष से सुभाष बहुत प्रभावित थे। वह अपने देश को अंग्रेजों के चगुल से आजाद कराना चाहते थे। रवींद्रनाथ ठाकुर की सलाह पर सुभाष भारत आने पर सर्वप्रथम मुंबई गए और गांधी जी से मिले। गांधी ने उन्हें कोलकाता जाकर देशबंधु चित्तरंजन दास 'दास बाबू' के साथ काम करने की सलाह दी। 1922 में दासबाबू ने कांग्रेस के अंतर्गत स्वराज पार्टी की स्थापना की। कोलकाता महापालिका का चुनाव लड़कर दासबाबू महापौर बन गए और सुभाष को उन्होंने महापालिका का प्रमुख कार्यकारी अधिकारी बनाया। युवा सुभाष जल्द ही देशभर में लोकप्रिय नेता बन गए।
सुभाष 11 बार गए जेल
अंग्रेजी सरकार के खिलाफ आंदोलन चलाने के कारण सुभाष को कुल 11 बार जेल जाना पड़ा। सबसे पहले उन्हें 16 जुलाई, 1921 को छह महीने जेल में रहने की सजा सुनाई गई थी। 1930 में जब सुभाष ने जेल से ही चुनाव लड़ा और वह कोलकाता के महापौर चुने गए, जिसके चलते अंग्रेजों को उन्हें जेल से रिहा करना पड़ा। 1932 में वह फिर गिरफ्तार हुए। उनकी तबीयत बिगड़ती जा रही थी, चिकित्सकों की सलाह पर उन्हें इलाज के लिए यूरोप जाना पड़ा। 1934 में सुभाष ने ऑस्ट्रिया की एमिली शेंकल से शादी की और एमिली ने उनकी पुत्री अनीता को जन्म दिया। 1938 में गांधीजी ने सुभाष को कंग्रेस अध्यक्ष बनाया, लेकिन उन्हें सुभाष के काम करने की शैली पसंद नहीं थी। कांग्रेस से वैचारिक मतभदों के चलते सुभाष ने यह पार्टी छोड़ दी। उन्होंने आजाद हिंद फौज का गठन किया और द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान ही जापान के सहयोग से भारत पर आक्रमण कर दिया, लेकिन अंग्रेजों का पलड़ा भारी पड़ा।
आजाद हिन्द फौज के सैन्य अिधकािरयों का कोर्ट मार्शल
अंग्रेज़ सरकार ने एक प्रेस विज्ञप्ति के माध्यम से 27 अगस्त 1945 को इस आशय की घोषणा की। आज़ाद हिंद फौज के सभी शीर्ष सैन्य अधिकारियों और जवानों के कोर्ट मार्शल के लिए फौजी अदालत में पेशी की बात तय हुई। इस पेशी का मुख्य उद्देश्य, देश की जनता को यह जतलाना था कि वे गद्दार, कायर, अड़ियल और जापानियों की चाकरी में लगे गुलाम थे। यह कदम सरकार की एक बड़ी भूल थी, जिसके दूरगामी परिणाम हुए।
ऑचिनलेक, वावेल को इस बात का भरोसा देता रहा कि भगोड़ों (वह आज़ाद हिंद फौज के सैनिकों को इसी नाम से पुकारता था) के वफादार सैनिकों को यातना देने के कुछ संगीन मामले हैं। वावेल का भी मानना था कि आज़ाद हिंद फौज के अधिकारियों के कोर्ट मार्शल से भारतीय जनता को झटका लगेगा। वावेल से भी अधिक ऑचिनलेक को इस बात का भरोसा कि जब आज़ाद हिंद फौज की क्रूरता के कुकृत्य सार्वजनिक होंगे तो आज़ाद हिंद फौज के लिए सहानुभूति स्वत: ही समाप्त हो जाएंगी।
अंग्रेज सरकार का मानना था कि देश के प्रति वफादार भारतीय जनता के लिए हत्या-यातना देने वाले स्वदेशी सैनिकों का समर्थन करना सहज नहीं होगा। इसके लिए ऑल इंडिया रेडियो से आज़ाद हिंद फौज के भगोड़ों सैनिकों की पूछताछ में अंग्रेज़ सेना में शामिल सैनिकों के चोटिल होने और मरने की मिथ्या तथा सनसनीखेज कहानियां प्रसारित की गई।
15
जून 1945 को जब अंग्रेज़ सरकार ने भारत छोड़ो आन्दोलन की विफलता के बाद कांग्रेस के नेताओं को देश भर की जेलों से छोड़ा तो राष्ट्रीय स्तर पर राजनीतिक परिदृश्य में एक बड़ा परिवर्तन आ चुका था। दूसरी तरह, कांग्रेस के नेता, सुभाष चन्द्र बोस के सक्षम नेतृत्व में आजाद हिंद फौज के गठन और फौज के साहसिक कारनामों से अनजान थे। शायद यही कारण था कि जेल से अपनी रिहाई के बाद जवाहरलाल नेहरू ने एक सवाल के जवाब में कहा कि अगर नेताजी भारतीयों का नेतृत्व करते हुए भारत से लड़ने की कोशिश की तो वे नेताजी के साथ-साथ जापानी सेना के विरूद्ध संघर्ष करेंगे।
26 जुलाई 1945, ब्रिटेन में हुए आम चुनावों में प्रधानमंत्री चर्चिल को मुंह की खानी पड़ी और क्लीमेंट एटली प्रधानमंत्री बना। इस समय तक कांग्रेसी नेताओं को नेताजी और उनकी आजाद हिंद फौज के बारे में पता लग चुका था। कांग्रेस नेतृत्व और अंग्रेज सरकार दोनों ही एक-समान दुविधा के शिकार थे। नेताजी के साथ कैसा व्यवहार हो। क्या उन्हें बंदी बनाकर भारत लाया जाए? नेताजी ने भारत की पहली राष्ट्रीय सशस्त्र सेना गठित करने के साथ अपनी भूमिका इतनी कुशलता से निभाई कि जापानी सेना को भारतीयों सैनिकों को सहयोगी के रूप में स्वीकारना पड़ा।
लालकिले में पहला मुकदमा
दिल्ली के लालकिले में पहला मुकदमा 5 नवंबर 1945 को शुरू हुआ। इस बीच 30 नवंबर 1945 को गवर्नर जनरल ने जनता में बढ़ती लोकप्रियता और उत्साह को भांपते हुए मुकदमे के लिए पेश नहीं किए गए आजाद हिंद फौज के गिरफ्तार सैनिकों को रिहा करने का फैसला लिया। 7 दिसंबर 1945 को जब दोबारा मुकदमा शुरू हुआ तो अभियोजन पक्ष के लिए श्रीगणेश ही गलत हो गया। मुकदमें की दिशा ने अंग्रेज सरकार के आज़ाद हिंद फौज की प्रतिष्ठा को धूमिल करने के प्रयास की ही विफल कर दिया।
उस समय अभियोजन पक्ष के मुख्य वकील और एडवोकेट जनरल सर नौशिरवन पी इंजीनियर अदालत में अपनी समापन जिरह में यातना संबंधी आरोप को प्रभावी रूप से सिद्व नहीं कर पाएं। भूलाभाई देसाई ने इस संबंध में सबूत मांगे। जब 3 कैवेलरी के दो अफसरों धारगलकर और बधवार को गवाह के रूप में पेश किया गया तो यह बात जाहिर हुई कि जापानी सेना का आचरण विधि सम्मत नहीं था न कि उनके साथी आज़ाद हिंद फौज के भारतीय सैनिकों का। मुकदमे में अभियोजन पक्ष के पहले गवाह एक पूर्व मजिस्ट्रेट डीसी नाग ने ही सरकार के पक्ष को सबसे ज्यादा नुकसान किया। भारतीय सेना की एडजुटेंट जनरल की शाखा में शामिल नाग को सिंगापुर में कैदी बनाया गया था। उसके साथ जिरह में आज़ाद हिंद फौज के विश्वसनीय संगठन होने की बात का पता चला। आज़ाद हिंद फौज एक संगठित, कुशल प्रशासन वाली सक्षम सेना के रूप में सबके सामने आई।
- 14वीं टुकड़ी ने
वर्ष 1943 में बर्मा को
जापानी सेना
से दोबारा
जीत लिया।
- 15 अगस्त 1946 को हथियार
डाल दिए।
तभी 23 अगस्त 1945 को नेताजी
की विमान
दुर्घटना में
मृत्यु होने
की घोषणा
हुई।
- 1945 को अंग्रेज सरकार
ने आजाद
हिंद फौज
के लगभग
600 सैनिकों पर
अदालत में
मुकदमा चलने
और बाकियों
के बर्खास्त
होने की
बात कही।
- 20 सितंबर 1945 को यह
फैसला लिया
कि भारतीयों
को मारने
वाले या
यातना देने
वाले दोषियों
को ही
मौत की
सजा होगी।
- 1946 में एक छोटी
प्रेस विज्ञप्ति
में, आज़ाद
हिंद फौज
पर और
अधिक मुकदमों
के न होने की बात
की घोषणा
की गई।
इसके साथ
ही आज़ाद
हिंद फौज
के हिरासत
में लिए
गए सभी
सैनिकों को
रिहा कर
दिया गया।
आजा़द हिंद फौज की जीत
अब पहली बार आज़ाद हिंद फौज की युद्ध के मैदान में प्रदर्शन की बात जगजाहिर हुई थी। इस बात को देश के राष्ट्रीय समाचार पत्रों ने हाथों हाथ लेते हुए प्रमुखता से प्रकाशित किया। अंग्रेज सरकार के दुष्प्रचार ने आजाद हिंद फौज के सैनिकों की धोखेबाज, कमजोर, डरपोक और बदमाश होने की जो छवि बनाई थी, वह तार-तार हो गई।
ये केवल अपनी देश की आजादी के लिए लड़ने वाले सैनिक थे। इस मुकदमे में अनेक गवाहों ने उनके साथ हुए दुर्व्यवहार की दास्तां सुनाई लेकिन दिलचस्प बात यह है कि उनका इन तीन आरोपित अफसरों से कोई संबंध नहीं था। भूलाभाई देसाई ने आरोप लगाया कि ऐसा इस अफसरों के खिलाफ एक पूर्वाग्रह पैदा करने के लिए किया गया था। एक तरह से अभियोजन पक्ष के गवाहों के बयानों ने ही आजाद हिंद फौज के अच्छे चाल-चरित्र और चिंतन को जाहिर किया। इस सब का कुल नतीजा जनता में आजाद हिंद फौज को लेकर उत्साह के रूप में सामने आया। बेशक यह वास्तव में आज़ाद हिंद फौज के लिए एक जीत थी।
- मई 1946 में एक छोटी
प्रेस विज्ञप्ति
में, आज़ाद
हिंद फौज
पर और
अधिक मुकदमों
के न होने की बात
की घोषणा
की गई।
इसके साथ
ही आज़ाद
हिंद फौज
के हिरासत
में लिए
गए सभी
सैनिकों को
रिहा कर
दिया गया।
इससे तत्कालीन
अंग्रेज सरकार
के नजरिए
से यह
बात को
पूरी तरह
साफ हो
गई कि
यह मुकदमा
एक आला
दर्जे की
भूल था।
इस बात
को लेकर
कोई निश्चिंतता
नहीं है
कि आखिर
में कुल
कितने मुकदमे
चलाए गए।
आज़ाद हिंद
फौज का
इतिहास पुस्तक
के अनुसार,
मार्च 1946 के अंत तक
केवल 27 मुकदमें शुरू किए
गए थे
या विचाराधीन
थे।
- आज़ाद हिंद
फौज और
उसके मुकदमों
ने अंग्रेज
सरकार को
यह स्पष्ट
संदेश दे
दिया कि
अब उनकी
विदाई की
घड़ी आ गई है। वाइसरॉय
ने अंग्रेज
सरकार को
चेताते हुए
कहा कि
पहली बार
पराजय का
भाव न केवल सिविल सेवाओं
बल्कि भारतीय
सेना पर
नजर आया।
लाल किले
में मुकदमों
के शुरू,
होने से
पहले ऑॅचिनलिक
ने सरकार
को बताया
था कि
भारतीय सैनिकों
की टुकड़ियां
गदर होने
की हालात
को काबू
कर लेंगी।
जबकि मुकदमों
के अंत
में उसका
आत्मविश्वास भी
बुरी तरह
डगमगा गया
था। शाह
नवाज, प्रेम
सहगल और
गुरबख्श ढिल्लों
भारतीय जनता
की आंखों
में खलनायक
नहीं, नायक
थे।
- इन अफसरों
को देशद्रोही
बताने से,
उनकी लोकप्रियता
में ही
वृद्धि हुई।
इन मुकदमों
से बने
राष्ट्रवादी माहौल
से सशस्त्र
सैनिक भी
अछूते नहीं
रहे। सेना
मुख्यालय ने
आजाद हिंद
फौज के
मुकदमों की
भारतीय सेना
पर प्रभाव
और सैनिकों
की भावनाओं
का आकलन
करने के
लिए एक
विशेष दल
गठित किया।
अब देश
में विद्रोह
की स्थिति
में भारतीय
सेना के
लिए इस्तेमाल
पर गहरा
सवालिया निशान
था। ऑचिनलेक
ने पहली
बार यह
बात महसूस
कि जावा
को दोबारा
जीतने के
लिए डच
सेना की
मदद के
लिए भारतीय
सैनिक टुकड़ियों
के उपयोग
का निर्णय
खासा अलोकप्रिय
रहा।
- शाह नवाज,
सहगल और
ढिल्लो की
सजा की
माफी के
बारे में
ऑचिनलेक ने
सभी वरिष्ठ
अंग्रेज अधिकारियों
को लिखे
एक पत्र
में कहा
कि इनको
सजा देने
का कोई
भी प्रयास
देश में
बड़े पैमाने
पर अराजकता
और शायद
सेना में
विद्रोह और
कलह को
जन्म दे
सकता है।
जो कि
सेना के
विघटन के
रूप में
सामने आ सकता है। एक
लंबे समय
तक अंग्रेजी
राज के
लिए तलवार
का काम
करने वाली
भारतीय सेना
अब एक
दोधारी हथियार
बन चुकी
थी जो
कि उसके
धारक के
लिए प्राणहंता
बन सकती
थी। ऑचिनलिक
के आदेश
से सेना
में हुए
अध्ययन से
साफ हो
गया कि
अब भारतीयों
के विरूद्ध
भारतीय सेना
का इस्तेमाल
नहीं किया
जा सकता
है।
- आज़ाद हिंद
फौज के
हैरतअंगेज कारनामों
ने सभी
भारतीयों को
झकझोर दिया
और उनमें
देशभक्ति की
भावना को
पहले से
अधिक प्रबल
कर दिया।
इसी का
परिणाम 1946 में बंबई में
भारतीय नौसेना
में विद्रोह
के रूप
में सामने
आया। इस
तरह, आज़ाद
हिंद फौज
ने हारकर
भी अंग्रेजी
उपनिवेशवाद के
कफन में
अंतिम कील
गाड़ने में
सफल रही।
23 अगस्त 1945
नेताजी की विमान दुर्घटना
अब देश के जनसाधारण की आंखों में नेताजी गांधीजी के समकक्ष थे। यह साफ़ हो गया था कि अगर सुभाष चन्द्र बोस वापिस लौटे तो जनता में नेताजी के समर्थन की लहर कांग्रेस के नेतृत्व को अप्रासंगिक कर देगी। तभी, दूसरे विश्व युद्ध का अचानक से अंत हुआ। जापान ने हिरोशिमा-नागासाकी में दो परमाणु बमों के गिरने के बाद 15 अगस्त 1946 को हथियार डाल दिए। तभी 23 अगस्त 1945 को नेताजी की विमान दुर्घटना में मृत्यु होने की घोषणा हुई। नेताजी की मौत ने अंग्रेज सरकार और कांग्रेस नेतृत्व दोनों की दुविधा दूर कर दी। अब वे उन्हें नुकसान पहुंचाने वाली स्थिति में नहीं थे। वे स्वतंत्रता सेनानियों की एक सेना का नेतृत्व करने वाले एक शहीद थे। कांग्रेस नेतृत्व को जल्दी से यह बात समझ में आ गई कि आजाद हिंद फौज की सफलता की बड़ाई करके कम से कम कुछ समय के लिए तो राजनीतिक लाभ उठाया जा सकता है।
दूसरे तरह का था अंग्रेजों का धर्मसंकट
अंग्रेजों का धर्मसंकट दूसरे तरह का था। उन्हें युद्धबंदियों के शिविरों से लौटे आजाद हिंद फौज के सैनिकों के प्रभाव का एहसास हुआ। कोर्ट मार्शल करने वाली अदालतों को बैठाने का निर्णय लेते समय अंग्रेज सरकार यह बात भूल गई कि अंग्रेजों और भारतीयों की जन-धारणाओं में जमीन-आसमान का अंतर है। वैसे तो ऑचिनलेक आजाद हिंद फौज के सैनिकों के खिलाफ कार्रवाई के अपने निर्णय को लेकर अडिग था पर बढ़ते जनमत के दबाब ने उसे पैर पीछे खींचने पर मजबूर कर दिया।
50 सैनिकों को मौत की सजा होने का था अनुमान
अगस्त 1945 को अंग्रेज सरकार ने आजाद हिंद फौज के लगभग 600 सैनिकों पर अदालत में मुकदमा चलने और बाकियों के बर्खास्त होने की बात कही। करीब 50 सैनिकों को मौत की सजा होने का अनुमान था। उस समय तक भारतीय जनता के मानस की कल्पना में आजाद हिंद फौज की छवि घर कर चुकी थी। इस अपूर्व प्रचार से भारतीय राजनीतिक वातावरण भी अछूता नहीं रह सका। अंग्रेज सेनाध्यक्ष ने वातावरण को ध्यान में रखते हुए 20 सितंबर 1945 को यह फैसला लिया कि भारतीयों को मारने वाले या यातना देने वाले दोषियों को ही मौत की सजा होगी। 20 अक्टूबर 1945 को मुकदमा चलने वाली श्रेणियों को भी घटा दिया गया। अब राजा के खिलाफ युद्ध छेड़ने वालों की जगह याताना देने के आरोपों के आधार पर ही मुकदमा चलने की बात तय हुई।
आजाद हिंद फौज की जीत, अंग्रेजों के विरुद्ध हो गई
सबसे पहले कर्नल (कैप्टन) शाह नवाज, कर्नल (कैप्टन) पी के सहगल और कर्नल (लेफ्टिनेंट) जी एस ढिल्लो के विरूद्ध मुकदमा चलना था। जब जापानी सेना ने इनको बंधक बनाया था तब ये कैप्टन और लेफ्टिनेंट ही थे। यह मुकदमा सही में एक महत्वपूर्ण बिंदु था। यह शायद सबसे निर्णायक घटना है, जो आजाद हिंद फौज के लिए एक जीत और अंग्रेजों के लिए बेहद दुखदाई साबित हुई। इसके बिंदु के बाद ही मानो समय अंग्रेजों के विरूद्व हो गया।
कांग्रेस ने आरोपी सैनिकों की जिम्मेदारी अपने ऊपर पर ली
अब देश के जनसाधारण की आंखों में नेताजी गांधीजी के समकक्ष थे। यह साफ़ हो गया था कि अगर सुभाष चन्द्र बोस वापिस लौटे तो जनता में नेताजी के समर्थन की लहर कांग्रेस के नेतृत्व को अप्रासंगिक कर देगी। तभी, दूसरे विश्व युद्ध का अचानक से अंत हुआ। जापान ने हिरोशिमा-नागासाकी में दो परमाणु बमों के गिरने के बाद 15 अगस्त 1946 को हथियार डाल दिए। तभी 23 अगस्त 1945 को नेताजी की विमान दुर्घटना में मृत्यु होने की घोषणा हुई। नेताजी की मौत ने अंग्रेज सरकार और कांग्रेस नेतृत्व दोनों की दुविधा दूर कर दी। अब वे उन्हें नुकसान पहुंचाने वाली स्थिति में नहीं थे। वे स्वतंत्रता सेनानियों की एक सेना का नेतृत्व करने वाले एक शहीद थे। कांग्रेस नेतृत्व को जल्दी से यह बात समझ में आ गई कि आजाद हिंद फौज की सफलता की बड़ाई करके कम से कम कुछ समय के लिए तो राजनीतिक लाभ उठाया जा सकता है।
महात्मा गांधी ने वर्ष 1939 में जर्मनी के नाजी तानाशाह एडोल्फ हिटलर को पत्र लिखा था। हालांकि ये पत्र हिटलर को मिला नहीं था। 23 जुलाई, 1939 को लिखे इस खत में महात्मा गांधी ने हिटलर से युद्ध टालने की अपील की थी। हालांकि इस पत्र के लिखे जाने के एक महीने के अंदर जर्मनी ने पोलैंड पर हमला बोल दिया था।
प्रिय दोस्त,
मेरे मित्र मुझसे गुजारिश करते रहे हैं कि मैं मानवता के वास्ते आपको खत लिखूं। लेकिन मैं उनके अनुरोध को टालता रहा हूं क्योंकि मुझे लगता है कि मेरी ओर से कोई पत्र भेजना गुस्ताखी होगी।
हालांकि कुछ ऐसा है जिसकी वजह से मुझे लगता है कि मुझे हिसाब-किताब नहीं करना चाहिए और आपसे यह अपील करनी चाहिए, चाहे इसका जो भी महत्व हो। ये बिल्कुल साफ है कि इस वक़्त दुनिया में आप ही एक शख्स हैं जो उस युद्ध को रोक सकते हैं जो मानवता को बर्बर स्थिति में पहुंचा सकता है। चाहे वो लक्ष्य आपको कितना भी मूल्यवान प्रतीत हो, क्या आप उसके लिए ये कीमत चुकाना चाहेंगे?
क्या आप एक ऐसे शख्स की अपील पर ध्यान देना चाहेंगे जिसने किसी उल्लेखनीय सफलता के बावजूद जगजाहिर तौर पर युद्ध के तरीके को खारिज किया है? बहरहाल, अगर मैंने आपको खत लिखकर गुस्ताखी की है तो मैं आपसे क्षमा की अपेक्षा करता हूं।